भारत माता..

भारत माता की जय के नारों पर, नेहरू ने ये बताई थी भारत माता की परिभाषा...

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू एक गांव में पहुंचे। उन्होंने ग्रामीणों से सवाल किया कि आप अक्सर भारत माता की जय का नारा लगाते हैं, क्या आप बता सकते हैं भारत माता कौन है। कोई जवाब नहीं मिला तो नेहरू बोले हमारे पहाड़, नदियां, जंगल, जमीन, वन संपदा,खनिज... यही तो भारत माता है।

आप भारत माता की जय का नारा लगाते हैं तो आप हमारे प्राकृतिक संसाधनों की जय ही करते हैं। नेहरू कहते थे हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत औरत नहीं है। नंगे किसान हिन्दुस्तान हैं। वे न तो ख़ूबसूरत हैं, न देखने में अच्छे हैं- क्योंकि ग़रीबी अच्छी चीज़ नहीं है, वह बुरी चीज़ है। इसलिए जब आप 'भारतमाता' की जय कहते हैं- तो याद रखिए कि भारत क्या है, और भारत के लोग निहायत बुरी हालत में हैं- चाहे वे किसान हों, मजदूर हों, खुदरा माल बेचने वाले दूकानदार हों,और चाहे हमारे कुछ नौजवान हों। नेहरू की इसी सोच के चलते उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। उन्होंने भाखड़ा नंगल डेम, बीएचईएल (बिजली के भारी उपकरणों का उद्योग) आईआईटी, एम्स, नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी की स्थापना की। नेहरू ने गांधी की आर्थिक संकल्पना को व्यवहारवादी रुख देते हुए देश में बड़े कारखानों, तकनीकी प्रगति और वैज्ञानिक सोच को समाविष्ट किया।

नेहरू की वैश्विक दृष्टि : नेहरू जी यह जानते थे कि देश को आजादी मिलने के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के साथ देश को मजबूत बनाया जाना बड़ा जरूरी है। भारत के आजाद होने के पहले ही चीन भी साम्राज्यवादी राजतंत्र से आजाद हुआ था। नेहरू की सर्वभौम वैश्विक दृष्टि थी। उनकी सोच यही थी कि नए आजाद हुए एशियाई देशों में सहयोग और भाईचारे की भावना जरूरी है तभी वे गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी जैसी चुनौतियों से पार पा सकेंगे। उन्होंने चीन के साथ पंचशील का समझौता इसी उद्देश्य से किया था कि देश के सैन्य संसाधनों का अनाश्यक विस्तार न करते हुए देश निर्माण पर ध्यान दिया जाए, हालांकि चीन पंचशील के समझौते पर कायम नहीं रहा और 1962 में उसने भारत पर आक्रमण कर दिया। एक साल के युद्ध के बाद चीन ने कुछ भूभाग पर कब्जा करने के बाद भारतीय भूभाग से कब्जा छोड़ दिया।

1940 के आखिर में शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने भारत को एक सहयोगी की तरह देखना शुरू किया, लेकिन नेहरू ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई। यही गुटनिरपेक्षता आगे चल कर निर्गुट देशों के आंदोलन में तब्दील हुई। नेहरू कहते थे अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से, आज का बड़ा सवाल विश्वशान्ति का है। आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें। हम देश को इस बात की स्वतन्त्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें। निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए। पंचशील या पाँच सिद्धान्त यही विधा बताते हैं।

मार्क्सवाद और समाजवादी विचारधारा में नेहरू की वास्तविक रुचि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जेल यात्रा के दौरान पैदा हुई, यद्यपि इससे उनके साम्यवादी सिद्धांतों और व्यवहार के ज्ञान में कोई ख़ास वृद्धि नहीं हुई। बाद में जेल यात्राओं के दौरान उन्हें अधिक गहराई से मार्क्सवाद के अध्ययन का मौक़ा मिला। इसके सिद्धांतों में उनकी रुचि थी, लेकिन इसके कुछ तरीक़ों से विकर्षित होने के कारण वह कार्ल मार्क्स की कृतियों को सारे प्रश्नों का उत्तर देने वाले शास्त्रों के रूप में स्वीकार नहीं कर पाए। फ़िर भी मार्क्सवाद ही उनकी आर्थिक विचारधारा का मानदंड रहा, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर भारतीय परिस्थितियों के अनुसार फेरबदल किया गया।

नेहरू की विरासत:  देश के प्रथम प्रधानमंंत्री की घरेलू नीति चार स्तंभों पर थी लोकतंत्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता। नेहरू ने अपने कार्यकाल के दौरान इन चारों स्तंभों को मजबूती प्रदान की। नेहरू एक आइकॉन थे। उनके आदर्श और राजनीतिक कुशलता का सम्मान विदेशों में भी किया जाता था। देश के जनमानस को आधुनिक मूल्य और विचारों से नेहरू ने ही संपृक्त कराया। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को सदा ही महत्व दिया। उन्होंने हमेशा देश की एकता बनाए रखने का प्रयास किया। वे जातीय अस्मिताओं और विविध धार्मिक समूहों वाले इस देश को वैज्ञानिक नवाचार और तकनीकी प्रगति के आधुनिक युग में लेकर गए। समाज में हाशिए के लोग और गरीब उनकी चिंता के केंद्र थे। लोकतात्रिंक मूल्यों में नेहरू ने सदैव पूर्ण आस्था रखी।

नेहरू को खास तौर पर हिंदू सिविल कोड लागू करने के लिए याद किया जाता है, इसी की बदौलत हिंदू औरतें उत्तराधिकार और संपत्ति में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा पा सकीं। नेहरू ने ही हिंदू कानून में बदलाव लाकर जातिगत भेदभाव को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में ला दिया। नेहरू ने ही पांच वर्षीय योजना में देश के सभी बच्चों को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देने की गारंटी दी।

नेहरू के अनुसार भारत की सेवा का अर्थ, करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान, और अवसर की विषमता का अन्त करना है। नेहरू की आकांक्षा यही रही कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आँसू को पोंछ दिया जाए, ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आँसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद में हुआ 1919 में वे राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में कूद पड़े। उनके पिता मोतीलाल नेहरू जाने-माने वकील और महात्मा गांधी के विश्वस्त सहयोगी थे। नेहरू जी ने केंब्रिज से नेचुरल साइंस की ऑनर्स डिग्री हासिल की और 1912 में भारत लौट कर वकीली करने लगे 1919 में अमृतसर के जलियावाला बाग में जनरल डायर ने निहत्थे भारतीयों पर गोली चलवा दी। इस घटना में 379 लोग मारे गए थे और 1200 से अधिक घायल हुए थे। इस घटना ने नेहरू को राजनीति की ओर मोड़ दिया और वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।

1928 में  जवाहरलाल नेहरू को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष नामित किया गया था। अगले साल ही नेहरू ने लाहौर में ऐतिहासिक सत्र का नेतृत्व किया जिसमें  भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की। नवम्बर1930 में लंदन में बुलाए गए गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों ने भारत की स्वतंत्रता की योजना को अंतिम रूप दिया। 1931 में पिता की मृत्यु के बाद नेहरू कांग्रेस से और अधिक जुड़ गए और महात्मा गांधी के नजदीक आ गए। 1931 में गांधी और वाइसराय लार्ड इरविन के बीच हुए समझौते के दौरान भी नेहरू मौजूद थे। समझौते के अंतर्गत बिरतानी हुकूमत और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बीच संघर्ष विराम की घोषणा की गई और गांधी जी  स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्गत नागरिक अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करने पर राजी हो गए। लेकिन यह समझौता भी ब्रिटिश नियंत्रित भारत में शांति स्थापित नहीं कर सका।

1932 के आंरभ में  एक और नागरिक अवज्ञा आंदोलन खड़ा करने को लेकर नेहरू और गांधी को जेल हो गई। दोनों ने तीसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। वहीं दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी एकमात्र भारतीय  प्रतिनिधि थे, जिन्हें लंदन से भारत लौटते ही गिरफ्तार कर लिया गया। तीसरे गोलमेज सम्मेलन के फलस्वरूप गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 अस्तित्व में आया, इसके तहत भारत के प्रांतों में स्वायत्त सरकारों की व्यवस्था का प्रावधान था, जिनके लीडरों के लिए चुनाव भी होने की व्यवस्था थी। 1935 का एक्ट जब तक कानून बनता नेहरू गांधीजी के नैसर्गिक उत्तराधिकारी के रूप मे उभरने लगे, हालांकि 1940 तक गांधीजी ने नेहरू को अपना राजनीतिक वारिस घोषित नहींम किया था। जनवरी 1941 में गांधी जी ने कहा कि जवाहर लाल ही मेंरे उत्तराधिकारी रहेंगे।

1939 में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश वाइसराय लार्ड लिनलिथगो ने प्रांतीय सरकारों के मंत्रियों की सलाह लिए बिना ही भारत को युद्ध में भाग लेने का वचन दे दिया। कांग्रेस ने विरोध स्वरूप प्रांतीय सरकारों से अपने प्रतिनिधियों को वापस बुला लिया। गांधी ने सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया, जिसमें उन्हें और नेहरू को फिर जेल जाना पड़ा। नेहरू ने एक साल से कुछ अधिक समय जेल में बिताया और वे कांग्रेस के अन्य राजनीतिक बंदियों के साथ रिहा हुए। इसी दौरान जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला बोल दिया।

1942 के बसंत तक जापान की सेनाएं भारत की सीमाओं के नजदीक पहुंचने लगी थीं। चर्चिल ने 1942में क्रिप्स मिशन को भारत भेजा। कांग्रेस को यह प्रस्ताव दिया कि भारतीय सेना ब्रिटिश सेना की मदद करे तो युद्ध में जीत के बाद बदले में भारत को आजाद कर दिया जाएगा, लेकिन कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं थी। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ दिया। वहीं सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली आजाद हिंद फौज जापान की सेना के साथ मिल कर भारत को आजाद कराने के लिए आगे बढ़ रही थी। हालांकि नेहरू गांधी जी के इस निर्णय से असहमत थे लेकिन न चाहते हुए भी उन्हें यह निर्णय मानना पड़ा।

भारत छोड़ो आंदोलन को दबाने के लिए गांधी जी के साथ नेहरू भी जेल भेज दिए गए। नेहरू तीन साल जेल में रहे। नेहरू जी 1947 से कुछ पहले जेल से रिहा हुए। तब तक ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार आ चुकी थी। विश्व युद्ध में जापान पराजित हो चुका था। वहीं कांग्रेस और मुस्लिम लीग में वैमनस्य चरम पर पहुंच गया था।वहीं कांग्रेस के आला लीडरों के जेल में रहने से देश में अलगाववादी भावनाएं जोर मारने लगी थी। मो. अली जिन्हा मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान चाह रहे थे। गांधी जी देश के विभाजन की कीमत पर स्वतंत्रता नहीं चाहते थे। भारत के अंतिम वाइसराय माउंटबेटन ने अंग्रेजों द्वारा भारत को आजाद करने का मसौदा सामने रखा। नेहरू न चाहते हुए भी मसौदे के तहत भारत और पाकिस्तान देश के निर्माण पर सहमत हुए। उसके बाद वे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने।

कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला :  आजादी के बाद कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान दोनों दावा कर रहे थे। नेहरू ने इस मसले को शांति से हल करने का प्रयास किया लेकिन पाकिस्तान में 1948 में कश्मीर में फौज भेज दी, जिसे भारतीय फौजों ने असफल कर दिया। कश्मीर के राजा हरिसिंह ने नेहरू से पाकिस्तान की सेना के खिलाफ मदद मांगी थी। कुछ शर्तों के आधार पर सेना ने मदद की और पाकिस्तान की सेना को बाहर किया। इन्ही शर्तों के चलते कश्मीर को धारा 370 का विशेष दर्जा प्राप्त है। लाइन ऑफ कंट्रोल के आधार पर कश्मीर का कुछ हिस्सा भारत में और कुछ हिस्सा पाकिस्तान चला गया।  तभी से कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में है। यूएन में यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि कश्मीर के भविष्य के बारे में जम्मू और कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर को लेकर जनमत संग्रह कराया जाएगा,  लेकिन एसा नहीं हो सका।  भारत और पाकिस्तान के बीच इसे लेकर तनाव है।

गोवा मुक्ति संग्राम: भारत की आजादी के 14 साल बाद भी गोवा पर पुर्तगालियों का शासन था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन के बार-बार के आग्रह के बावजूद पुर्तगाली झुकने को तैयार नहीं हुए। उस समय दमन दीव भी गोवा का हिस्सा था। पुर्तगाली सोचते थे कि नेहरू के सिद्धांतों के चलते भारत शक्ति के इस्तेमाल की हमेशा निन्दा करता रहा है, इसलिए वह हमला नहीं करेगा। उनके हठ को देखते हुए नेहरू और मेनन को कहना पड़ा कि यदि सभी राजनयिक प्रयास विफल हुए तो भारत के पास ताकत का इस्तेमाल ही एकमात्र विकल्प रह जाएगा।

इस बीच गोवा मुक्ति संग्राम भी शुरू हो चुका था जिसमें गोवा, महाराष्ट्र की जनता के साथ राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये समेत कई समाजवादी नेताओं ने संघर्ष किया। पुर्तगाल जब किसी तरह नहीं माना तो नवम्बर 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार हो जाने के आदेश मिले। सेना ने दो दिसंबर को गोवा मुक्ति का अभियान शुरू कर दिया। इसे आपरेशन विजय का नाम दिया गया था। वायु सेना ने आठ और नौ दिसंबर को पुर्तगालियों के ठिकाने पर अचूक बमबारी की। सेना और वायु सेना के हमलों से पुर्तगाली तिलमिला गए। आखिरकार 19 दिसंबर 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने समर्पण समझौते पर दस्तखत कर दिए।  इस तरह भारत ने गोवा और दमन दीव को मुक्त करा लिया और वहां पुर्तगालियों के 451 साल पुराने औपनिवेशक शासन को खत्म कर दिया।

पुर्तगालियों को जहां भारत के हमले का सामना करना पड़ रहा था,वहीं उन्हें गोवा के लोगों का रोष भी झेलना पड़ रहा था। दमन दीव पहले गोवा प्रशासन से जुड़ा था लेकिन 30 मई 1987 में इसे अलग से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. गोवा और दमन दीव में हर साल 19 दिसंबर को मुक्ति दिवस मनाया जाता है गोवा की मुक्ति से एफ्रो-इंडिया एकता को बल मिला, क्योंकि कई अफ्रीकी देशों पर भी पुर्तगालियों का कब्जा था और वे इससे मुक्त होना चाह रहे थे।

~अभय कुमार

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